अष्टावक्र कहते हैं एको दृष्टासी सर्वस्य । अर्थात तू सर्व का दृष्टा है । तू सर्वदा मुक्त है । तेरा बंधन तो यह है कि तू स्वयं को छोड़ दूसरों को दृष्टा देखता है ।
व्यक्ति दृश्य नहीं दृष्टा है। दृष्टा वह है जिसकी दृष्टि स्वयं पर है। यदि व्यक्ति दूसरों की आंखों का दर्पण की तरह उपयोग करता है तो वह दृश्य बन जाता है। हम तीन तलों पर दृष्टि को विभाजित कर सकते हैं। एक है दृश्य, दूसरा है दर्शक और तीसरा है दृष्टा। ज्यादातर लोग पहली दो श्रेणियों में आते हैं।
फिल्मी हस्तियां और राजनेता दृश्य जगत की याद दिलाते हैं। क्योंकि उनका सारा जोर स्वयं को दृश्य मान लेने पर है। Personality Driven ।दृश्य जगत से जुड़ा व्यक्ति दर्शक की तलाश में जरूर रहेगा । जहां दृश्य होगा वहां दर्शक भी होंगे । क्रिकेट का मैच है तो दर्शकों के बिना अधूरा है ।आप सिनेमाघर में है । फिल्म का आनंद ले रहे हैं । फिल्म आपके लिए दृश्य हुई और आप उसके दर्शक । जब आपका ध्यान ऑब्जेक्ट पर होता है तब आप दर्शक हुए । और ऑब्जेक्ट आपके लिए दृश्य हुआ । मगर ध्यान रहे एक तीसरा कोण भी है और वह है सब्जेक्ट का ।
किसी वस्तु को देखते हुए अगर आपकी चेतना का तीर स्वयं की तरफ भी होता है तो आप दृष्टा हुए । आपने अपने भीतर होश को बरकरार रखा ।
किसी वस्तु को देखते समय स्वयं को बिसरा देना ही बेहोशी है । जिससे जीवन में कर्ता का भाव निर्मित होता है । इससे आप स्वयं को वस्तु के साथ जोड़ बना लेते हो । व्यक्ति शुद्ध बुद्ध चैतन्य है । अहंकार निर्मित होता है जब आप स्वयं के वास्तविक रूप को भूल जाते हो । स्वयं को भूल जाने से आप ऑब्जेक्ट के साथ जुड़ जाते हो । एक कमरे में ज्योति जल रही है । उसका प्रकाश पास ही में पड़े टेबल – कुर्सी – अलमारी पर पड़ता है । मगर वह ज्योति किसी भी चीज के साथ एक नहीं होती । ज्योति टेबल नहीं बन जाती । व्यक्ति की दृष्टि जब दृश्य पर पड़ती है तब उसका चैतन्य उस दृश्य के साथ एक हो जाता है । जीवन में दुख आया तो आप दुखी हो गए । सुख आया तो खुश हो गए । स्वयं को जानना हो तो दूसरों को दर्पण की भांति इस्तेमाल करना छोड़ना होगा । दूसरों की आंखों में झांकना छोडना होगा । दृष्टि स्वयं पर लाना ही ध्यान है ।
‘Sakshi’Narendra@mysticvision.net