परमात्मा को समर्पित हुआ भक्त सब उसे न्योछावर कर देता है। वह कुछ नहीं करता। जिसे करने योग्य मानता है, वही करता है। ऐसे करने में उसकी अपनी कोई मर्जी नहीं रह जाती।
राजा जनक भगवान अष्टावक्र को कहते हैं – यत् वेति तत् स कुरुते। अर्थात भगवान को समर्पित हुआ भक्त वही करता है जो प्रभु उससे करवाते है। ऐसा करते ही वह सारे कर्मबंधन से ऐसे मुक्त हो जाता है जैसे काले घने बादल आसमान में भ्रमण तो जरूर करते हैं मगर आसमान को कभी काला नहीं कर सकते। सारे कर्मों को करते हुए भी यदि भीतर आपका ‘दृष्टा’ भाव कायम रहता है तब आप पूर्णतःअकर्ता बने रहते हो।
ऐसा करना ही समस्त कर्मों को करते हुए भी आपको कर्मों के साथ बांधता नहीं। अपने स्वभाव को जान लेने के बाद आप समस्त शोकों के पार हो जाते हो। फिर कोई भय नहीं, दुख नहीं, संताप नहीं। हमारा सारा दुख, सारी पीड़ाएं, भय और सब प्रकार के संताप अहंकार केंद्रित हैं। अहंकार के बिना यह ऐसे ही बिखर जाते हैं जैसे ताश के पत्ते हवा के एक झोंके में गिर जाते हैं। एक सूत्र को यदि आपने अपने भीतर बिठा लिया और वह है सब कृत्यों, घटनाओं और परिस्थितियों में ‘साक्षी’ ना भूले, फिर कर्ता का भाव आपको छूता नहीं। जीवन में सारा तनाव, एंग्जाइटी या फिर मनोरोगों का मूल स्रोत है आपके भीतर कर्ता का भाव होना। यही अहंकार है, यही नकारात्मकता है, यही अज्ञान है और इसी से कर्मबंधन पैदा होता है।
यदि घर में तनाव है, परिवार के सदस्यों के बीच अनबन हैं, क्लेश है, आप निर्व्यक्तिक हो जाएं। दूर खड़े हो जाए और ‘साक्षी’ भाव से,बिना किसी पक्ष या अपक्ष में खड़े हो सिर्फ घटनाओं को देखते रहे और आप पाएंगे कितना जादुई तरीके से आपकी समस्या का निराकरण हो गया। दूर ऐसे खड़े हो जाएं जैसे कि यह घटना आपके साथ नहीं किसी और के साथ हो रही है। ऐसे दूर खड़े हो जाए जैसे आपका उस घटना से कोई लेना-देना नहीं। और आप पाएंगे की समस्या का जादुई हल आपके हाथ लग गया।
आपको किसी ने गाली दी, कुछ बुरे वचन बोले। उसी क्षण अपने भीतर ‘साक्षी’ को जगाए। दूर खड़े हो जाएं, देखते रहे उस घटना को इस भांति मानो कि वह बुरे वचन आपको नहीं किसी और को कहे जा रहे हैं। और आप पाएंगे कि आपके भीतर इस क्षण जो कोलाहल होनेवाला था,वो रुक गया ।चित्त आपका शांत रहा ।करके देखें । उस क्षण को आप शांत भाव से गुजर जाते हो।
वास्तव में किसी घटना के साथ स्वयं को आईडेंटिफाई कर लेने से आपके जीवन में दुख का निर्माण होता है। आपको किसी ने गाली दी, आप यह समझ बैठे कि गाली मुझे दी गई। आपके अहंकार को ठेस पहुंची । आपने स्वयं को उस गाली के साथ आईडेंटिफाई कर लिया। और फिर दुख होना निश्चित है।
भीतर होश को जगाए रखना – यही एकमात्र सूत्र है स्वयं के भीतर रूपांतरण का। यह रूपांतरण भीतर से बाहर का होगा। यह रूपांतरण स्थायी होगा न कि क्षणिक खुशी की अनुभूति।
आपको किसी मंच पर वक्तव्य देने के लिए कहा जाता है। उसी क्षण यदि आप स्वयं के प्रति कॉन्शियस हो जाते हो तो आप वक्तव्य दे न पाएंगे। आप दूर खड़े हो जाएं। भूल जाए कि आप मंच पर हैं, और श्रोता आपको सुन रहे हैं। आइडेंटिफिकेशन के टूटते ही आप वर्तमान में आ जाते हैं। और फिर जो होता है आप उसके लिए स्वयं ही आश्चर्य करेंगे कि यह मेरे द्वारा वक्तव्य हो यह असंभव है।
ध्यान एकमात्र रास्ता है अपने भीतर होश को जगाने का। प्रतिदिन एक घंटा आप स्वयं के साथ हो जाएं न मंत्र, न जप, न तप सबको रहने दे। ‘ न कुछ’ करने की अवस्था में आ जाए। और आप धीरे-धीरे रूपांतरित होते चले जाएंगे।
‘Sakshi’Narendra@mysticvision.net