सुख की आकांक्षा वास्तव में आनंद की आकांक्षा है। सुख की आकांक्षा सत्य की आकांक्षा है। सुख की आकांक्षा स्वयं की खोज की यात्रा है।
आनंद की खोज स्वयं की खोज है। स्वयं के भीतर जो अनिर्वचनीय, शाश्वत आत्मतत्व विराजमान है, उसकी खोज है। आनंद की खोज आत्मा की खोज है। समृद्धि हर एक के पास हो सकती है मगर आनंद तो किसी कृपापात्र के पास ही होता है। आनंद है भीतरी मौन, शांति और अस्तित्व के साथ ‘एकत्व’ का अनुभव, जहां ‘आप’ नहीं होते। बूंद जैसे सागर में विलीन हो जाए ! मनुष्य का अस्तित्व दो अतियों पर निर्भर है। पूर्व का व्यक्तित्व ‘आत्मवादी’ है और पश्चिम का ‘शरीरवादी’। एक की सफलता का सूत्र त्याग है जबकि दूसरे का भोग। मगर हैं दोनों अतियाँ। मनुष्य न केवल शरीर है और न केवल आत्मा। वह शरीर और आत्मा का एक अद्भुत मेल है। दोनों अलग-अलग भी हैं मगर दोनों को अभिन्न भी । ध्यान ही वह माध्यम है जहां पर आपको यह भेद स्पष्ट दिखाई देता है। मनुष्य भौतिकवाद या फिर परमात्मवाद दो अतियों में जीता है। यह दो अतियां तनाव का मुख्य कारण है। हर मनुष्य तनावग्रस्त है। क्योंकि दोनों अतियां कुछ ‘पाने’ पर, कुछ ‘होने’ पर निर्भर है। और निर्भरता तनाव लेकर आएगी। एक पूर्ण संस्कृति का भी निर्माण हो सकता है जो ‘मध्य’ में हो। और ऐसी संस्कृति ही आनंदपूर्ण अस्तित्व और शांति की गंगोत्री होगी। जहां भीतर आनंद हो और बाहर समृद्धि। अभी हम ऐसे समाज में जी रहे हैं जहां व्यक्ति अगर भौतिक सुखों की तरफ न भागे तो उसको हम संन्यासी कह देते हैं। सन्यास भीतरी शांति की अवस्था है । किसी चीज के त्याग की विचारधारा नहीं ।संन्यास जाग जाना है। केश बढ़ा लेने से, कपड़े बदल लेने से या कोई बाहरी आवरण के परिवर्तन से संन्यास का कोई लेना-देना नहीं। संन्यास दृष्टिकोण का परिवर्तन है। सारे संसारिक कामों को करते हुए भी आप संन्यासी हो सकते हैं। और बाहरी आवरण बदल लेने के बाद आप हिमालय पर चले गए तो वहां पर भी आप संसार का निर्माण कर सकते हैं। संन्यास भीतरी जागरण है। संन्यासी मैं उसे कहूंगा जिसकी चेतना कामना मुक्त है। जो भीतर आनंद से भरा है। यानि उसे कुछ भी अगर न मिले तो भी उसकी ‘मौज’ भंग नहीं होती। जो भीतर से आनंदित है वही इस जगत में आनंद को फैला सकता है। उसकी उपस्थिति, उसकी वाणी, उसकी दृष्टि आनंद का स्त्रोत बन सकती है। और ऐसा व्यक्ति दूसरों के जीवन में रूपांतरण का माध्यम बन सकता है।
एक पूर्ण संस्कृति कल्पना नहीं मगर हकीकत बन सकती है। मगर प्रथम शर्त है ‘जाग’ जाना। अपनी सारी ऊर्जा को स्वयं अपने पर केंद्रित करना ताकि आप जो ‘नहीं ‘ हो उससे मुक्त हो सको, और आप ‘जो हो’ उसका अनुभव आपको हो सके। व्यक्ति रूपांतरण रिवॉल्यूशन नहीं इवोल्यूशन है। यह ऐसी कोई घटना नहीं, आपने सोचा और आप कर दोगे। दुख का प्रत्येक क्षण इसके लिए निमित बनेगा। और उसी क्षणों में आप इवॉल्व होंगे। उसी को मैं जागरण कहता हूं। ध्यान एकमात्र रास्ता है व्यक्ति रूपांतरण का। नैतिकता रूपांतरण नहीं ला सकती। ‘रोज एक घंटा ध्यान फिर दूसरा काम ‘ यह सूत्र जरूर रूपांतरण ला सकता है। और वही रूपांतरण ही ‘स्थाई’ होगा जहां भीतर संन्यास होगा बाहर संसार।
‘Sakshi’Narendra@mysticvision.net