राजनीति में तो धोखा,फरेब और जालसाजी आम बात है। मगर धर्म, अध्यात्म में भी ये कुछ नया नहीं है। आए दिन समाचारों में सुनते पढ़ते हैं राजनेताओं के कारनामे। जब पूरा समाज ही नकारात्मकता से भरा हो तो साधु संत समाज भी कैसे उस से मुक्त रह सकता है। हमने हाल ही में गुरु-शिष्य के संबंधों को कलंकित करते हुए एक समाचार को सुना पढ़ा। आश्चर्य होता है क्या कोई शिष्य ऐसा भी अपने गुरु के साथ कर सकता है ? जिस गुरु ने उसे अपने बच्चे की तरह पाला,पढ़ाया,लिखाया – एक जिम्मेदार नागरिक बनाया। धर्म अध्यात्म के नाम पर कलंक लगाने वाला यह वाकिया है। कई मौलिक प्रश्नों को यह घटना हमारे बीच में मनन के लिए मजबूर करती है। पहला है कि क्या आपके भीतर संन्यास स्वत घटित हुआ कि आप संन्यास के लिए आकर्षित होकर आपने संन्यास ग्रहण किया। यह प्रश्न इसलिए जरूरी है कि नैसर्गिक संन्यास आपको मूलतः स्वयं से जोड़ने का काम करता है। संन्यासी होने पर भी यदि आपका आचरण, विचार, जीवन-शैली अभी भी संसारी की तरह हैं तो जान लेना कि संन्यास केवल नाम मात्र है, स्व स्फूर्णा नहीं। थोपा गया है। आरोपित संन्यास है। क्योंकि आरोपित की गई कोई अवस्था अस्थाई होगी। मौका मिलते ही आप वासनाओ की तरफ फिर से लौट आएंगे। मौका मिलने की देर है।
दूसरी बात मैं यह कहना चाहता हूं कि आप जब तक होश को जीवन में नहीं लेकर आते तब तक आप जो भी करेंगे वह संन्यास नहीं। होश आपको स्वयं के केंद्र से जोड़ता है। होश पूर्ण कृत्य ही पुण्य बनता है। बेहोशी से किया गया पुण्य वास्तव में पाप ही है। क्योंकि उसमें कर्ता की छाया है। इसी में गुरु की भूमिका मुख्य हो जाती है। गुरु कौन ? गुरु कैसा हो ? गुरु वही जो आपके भीतर होश जगाए। बस गुरु का इतना ही काम है। क्योंकि होश को जगाते ही आप मौलिक संन्यास में स्वत ही उतर जाते हैं। देना नहीं पड़ता। कपड़े बदल लेने या केश बढ़ा लेने से इसका कोई सरोकार नहीं। होश का दिया जलते ही आप भी वह नहीं रहते जो अभी आप स्वयं को मान कर जी रहे हैं। होश कुंजी है। होश वह मंत्र है जो जीवन के हर घटना क्रम में हमें स्वयं की चेतना से जोड़े रखता है। जैसे ही हम स्वयं की consciousness से जुड़ते हैं हमसे वह वह होने लगता है जो जरूरी है, होना अनिवार्य है। अन्यथा सब छूटने लगता है। होश है वह महामंत्र जो आपको गौरी शंकर के शिखर पर विराजमान करता है। धर्म, अध्यात्म के नाम पर हम सब कुछ करते रहते हैं मगर होश को साधते नहीं। इसलिए जितना दुष्कर्म भले लोगों द्वारा होता है उतना बुरे नहीं करते। क्योंकि भले तो अपने को भला मान कर ही जी रहे हैं। अज्ञानी तो अज्ञानी है ही, ज्ञानी स्वयं को ज्ञानी मानकर जी रहा है। शिष्यत्व तो वास्तव में महा क्रांति है। गुरु के प्रति अथाह प्रेम, समर्पण की भावना और गुरु के प्रति श्रद्धा ही शिष्य का धर्म है। जब तक होश स्वयं के भीतर नहीं जगता तब तक गुरु होश का प्रतीक है। गुरु जलता हुआ दीपक है जिसकी रोशनी में शिष्य अपने को सुरक्षित पाता है। शिष्य गुरु के प्रति समर्पण का उदाहरण बने इसके लिए जरूरी है होश को अपने भीतर जगाएं तभी वास्तविक संन्यास है।
‘Sakshi’ Narendra @mysticvision.net