जो छीन जाए वह परमात्मा नहीं। जो छीन जाए वह संपदा नहीं। मौत भी जिसे छीन न सके, उसको पा लेना ही सब कुछ पा लेना है। वह संपदा सभी के भीतर है। शाश्वत के साथ संबंध जुड़े तो ही मृत्यु से ऊपर उठा जा सकता है। और तभी असली मायनों में जीवन शुरू हुआ समझो। उसके पहले तो जीवन जी रहे हैं यह मान लेना स्वयं को धोखा है। जो शाश्वत है उसे जानना ही होगा। ताकि हम शाश्वत के साथ एक हो जाएं। ताकि हमारी लहर सी जिंदगी और ना तड़पे। ताकि अंधेरा और न रहे हमारे जीवन में।
परमात्मा को तुम स्वयं न खोज पाओगे। परमात्मा सूर्य जैसा है। सूर्य के साथ आप आंख नहीं मिला सकते । जबतक आप चंद्रमा की शीतल रोशनी के साथ अपना तालमेल न बिठा लो। गुरु चांद की तरह शीतल है, पहले उससे संबंध बिठाना होगा। जो भी परमात्मा को खोजने निकला है, उसे पहले गुरु मिला है। गुरु सेतु है तुम्हारे और परमात्मा के बीच में। साधक कहां और परमात्मा कहां। दोनों में संबंध का निर्माण गुरु के माध्यम द्वारा ही संभव है। भीतर जबतक नकारात्मकता है तब तक शाश्वत का अनुभव असंभव है। अंधेरा और उजाला एक स्थान पर हो नहीं सकते। गुरु वह माध्यम है जिसके द्वारा आप उजाले का अनुभव करते हो। ताकि आपके भीतर का अंधेरा न रहे। स्वयं के भीतर संशय का होना नकारात्मकता है। ‘ मेरा कार्य सिद्ध होगा या नहीं ‘ यह सोच मन की उपस्थिति दर्शाता है। संकल्पवान व्यक्ति तो वह है जो भीतर अनुभव कर ले कि कार्य सिद्ध होगा ही….100%। इस अस्तित्व की अनुकंपा सभी पर अपार है। तुम बुरा भी करने जाते हो तो अस्तित्व तुम्हें रोक नहीं लेता। तुम पाप भी करने जाते हो तो अस्तित्व बेशर्त तुम्हारा साथ देता है। यह हम पर है कि हम अस्तित्व से क्या मदद मांगे। जीवन में नकारात्मकता का मूल कारण है बेहोशी भरा जीवन। हम अनजाने में ही अस्तित्व से वह मांग लेते हैं और मांगते चले जाते हैं जो हमें नहीं चाहिए। जो हमें चाहिए अगर उसे हमें मांगना है तो होशपूर्ण जीवन जरूरी है। जीवन में होश पैदा हो उसके लिए जागे हुए इंसान की आवश्यकता होती है। जो स्वयं जाग गया है वही दूसरों को जगा सकता है। विडंबना है कि सब सोए सोए दूसरों को जगा रहे हैं। जो स्वयं जागा नहीं वह दूसरों को क्या जगाएगा। शिष्य वह जो सोया हुआ है। साधक वह है जो सोया हुआ है मगर उसने अब जागने का मन बना लिया है। शिष्य वह जो बिना कुछ दिए सब पाना चाहता है। साधक वह जिसने अभी अपनी तैयारी बता दी है कि वह जो चाहे देने के लिए तैयार है।
जबतक आप भरे – भरे हो आप कुछ पा न सकोगे। कोई देना भी चाहे तो आप ग्रहण न कर पाओगे। गुरु के पास तो जबतक आप खाली होकर नहीं जाते, तब तक कुछ हासिल न होगा। जिसके भीतर शून्य घटित हो जाता है वह वास्तव में फ़क़ीर होते हुए भी सम्राट है। फकीरी गरीबी की संज्ञा नहीं , बादशाहट की घोषणा है। जिसमें सत्य घटित हो जाता है उसको हमने ‘स्वामी’ कहा है। स्वामी वह जिसका स्वयं पर ‘ स्वामित्व ‘ है। स्वामी वह जिसकी चेतना कामना मुक्त है। स्वामी वह जो मन से चलायमान नहीं होता। मन के अतिक्रमण के लिए जरूरी है कि आपके जीवन में कोई जगाने वाला हो। और दूसरी जरूरत यह है कि आप जागने को तैयार हो। गुरु वह सेतु है जो संसार और परमात्मा के बीच का संबंध है। और तभी जीवन रूपांतरण संभव है।
‘Sakshi’ Narendra @mysticvision.net