प्रेम के रूप कई हो सकते हैं छोटों के साथ स्नेह, हम उम्र के साथ प्रेम, अपने से बड़ों के लिए श्रद्धा और परमात्मा से भक्ति। यदि अहंकार हो तो प्रेम हो ही नहीं सकता। प्रेम के लिए एकमात्र शर्त है अंहकार का विसर्जन। अहंकार एकमात्र बाधा है प्रेम की यात्रा में।
अहंकार से संदेह उठते ही श्रद्धा की क्रांति हो जाती है। अहंकार संदेह उत्पन्न करता है। अंहकार कहना चाहता है कि यह संभव नहीं हो सकता। मस्तिष्क कहेगा अहंकार की भाषा। ह्रदय संदेश देता है प्रेम का। मस्तिष्क है मरुस्थल और हृदय है हरी-भरी बगिया। झुकना भक्ति है। शरणागत होने की भाव दशा भक्ति है। स्वयं के अहंकार का विसर्जन भक्ति है। धर्म चाहे कोई भी हो हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई। मगर सभी धर्मों ने झुकने को अर्थात भक्ति को प्रधान्य दिया है। महावीर ने कभी परमात्मा की बात नहीं की। मगर यह संदेश दिया -अरिहंत शरणं पजियामी। अर्थात महावीर ने भी झुकने को भक्ति कहा। बुद्ध ने तो आत्मा और परमात्मा दोनों का इनकार किया। मगर यह जरूर कहा – बुद्धम शरणम गच्छामि। धम्मम शरणम गच्छामि। संघम शरणम गच्छामि। अर्थात शरणागत की बात बुद्ध ने भी की। भगवान कृष्ण तो गीता में कहते हैं अर्जुन को – सर्व धर्म परितेज मां एकम शरणम ब्रिज। अर्थात अर्जुन तू सब छोड़-छाड़ कर मेरी शरणागति हो जा। इस्लाम मूर्ति पूजा में नहीं मानता। मगर प्रत्येक मुसलमान काबा के पत्थर को तो बारंबार झुकता है। और वह भी शरणागति का ही संदेश देता है। उनका झुकना कई अर्थों में ज्यादा प्रगाढ़ है। झुकना शरणागति है। झुकना भक्ति का सूचक है। और ऐसा करने से ही भगवत्ता का जन्म होता है। दिव्यता का आविर्भाव होता है। ज्ञान भक्ति नहीं है। वरन ज्ञान तो आपको स्वयं से कोसों मील दूर ले जाता है। स्व अनुभव भक्ति है। भक्ति वास्तव में सिर का झुकना है।
‘Sakshi’Narendra@mysticvision.net