धर्म वह है जिसने सबको धारण कर रखा है। धर्म वो मौलिक सत्य का नाम है जिसने सबको संभाला हुआ है। धर्म और संस्कृति दोनों भिन्न हैं। धर्म से संस्कृति का निर्माण नहीं होता। धर्म तो तब अनुभव में आता है जब हम सारी संस्कृतियों का त्याग कर देते हैं।
इस पूरे ब्रह्मांड को जिसने संभाल रखा है। मगर उसके बावजूद भी वह प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता उसका नाम है धर्म। जिसने सागर को, नदियों को, पेड़ पौधों को, पहाड़ों को और असंख्य जीव जंतु, प्राणियों को संभाल रखा है उसका नाम है धर्म। जैसे माला की गुरियों को धागा बांधे रखता है। धागा न हो तो माला बिखर जाए। और धागा न हो तो माला पिरोई नहीं जा सकती। उसी भांति धर्म ने सारी संस्कृतियों को एक सूत्र में बांध रखा है। इस सारे अस्तित्व को जिसने धारण कर रखा है उसका नाम है धर्म। धर्म का अर्थ हिंदू, मुसलमान, सिख इसाई इत्यादि तक सीमित नहीं। धर्म है पूरे एकत्व को धारण करने वाला। संस्कृतियां तो अनेक होनी चाहिए क्योंकि उससे विविधता आती है। और विविधता अपने आप में जीवन को और रस रूप बनाती है। मगर धर्म तो एक ही होना चाहिए। धर्म सनातन सत्य है। धर्म को जब हम सीमित रूप में देखने लगते हैं तो हम संकुचित हो जाते हैं। और यहीं से विभिन्न धर्म को मानने वालों में घृणा और वैमनस्य पैदा होता है। मैं यदि हिंदू हूं तो हिंदू होना मेरा धर्म नहीं। यह तो मुझे परिवार, संस्कारों से मिला हुआ नाम है। धर्म तो स्व अनुभव है। जो स्व स्फूर्णा से अनुभव में आता है। धर्म वास्तव में बगावत है। वह भीतर से बाहर की यात्रा है। बाहर से भीतर जो आरोपित किया जाए वह संस्कृति है।धार्मिक व्यक्ति वास्तव में हंसता, गाता, नाचता हुआ आनंदित जीवन बिताता है। उसके लिए न सिर्फ यह जीवन उत्सव है मगर मृत्यु भी उसके लिए कल्याणकारी है।
‘Sakshi’Narendra@mysticvision.net