ध्यान ज्ञान और भक्ति का सार है। ध्यान निचोड़ है दोनों का। जिसको भक्त प्रीति कहता है, जिसको ज्ञानी बोध कहता है। ध्यान बोध और प्रीति का निचोड़ है। अगर आपके पास कुछ फूल भक्ति के हैं और कुछ फूल ज्ञान के और दोनों को निचोड़ कर तुमने इत्र बनाया वही है ध्यान।
ध्यान भक्त की भक्ति है, ज्ञानी का बोध है। ध्यान वो पंछी है जिसका एक पंख भक्ति है और एक पंख ज्ञान है। ध्यान सीढ़ी है जो आपको परमात्मा के साथ जोड़ती है। भक्ति से पाओ तो भी ध्यान मिलेगा और ज्ञान से पाओ तो भी ध्यान मिलेगा। अर्थात ध्यान सार है। जो संपदा तुम्हारे हाथ में लगेगी, उसका नाम ध्यान है।
भक्ति का अर्थ होता है: भक्त खो जाता है, भगवान बचता है। ज्ञान का अर्थ होता है: भगवान खो जाता है, ज्ञानी बचता है, आत्मा बचती है। बुद्ध ,जो ज्ञान के परम शिखर हैं उन्होंने कभी परमात्मा को स्वीकार नहीं किया। कह दिया कि परमात्मा है ही नहीं। यह ज्ञान की उद्घोषणा है। महावीर ने तो घोषणा कर दी कि परमात्मा ही नहीं ,आत्मा भी नहीं है। यह शून्यवाद की उद्घोषणा ध्यान का सार है। नारद दूसरी ही घोषणा करते हैं। वह कहते हैं भक्ति में भक्त नहीं बचता। भक्त तो भगवान में लीन हो जाता है। सिर्फ भगवान ही बचता है।
भक्ति और ज्ञान दोनों पर अगर गौर किया जाए तो एक ही है। जिसमें कि दो नहीं बचते, एक ही बचता है। और वही ध्यान है। भक्ति और ज्ञान में जो अंत में एक बचा रहता है उसे आप भगवान कहो, आत्मा कहो, निर्वाण कहो, मोक्ष कहो, समाधि कहो क्या फर्क पड़ता है। यह सारे नाम कामचलाऊ हैं।
मैंने सुना है, अरस्तू एक दिन सागर के किनारे टहलने गया और उसने देखा कि एक पागल आदमी–पागल ही होगा, अन्यथा ऐसा काम क्यों करता–एक गड्ढा खोद लिया है रेत में और एक चम्मच लिए हुए है; दौड़ कर जाता है, सागर से चम्मच भरता है, आकर गड्ढे में डालता है, फिर भागता है, फिर चम्मच भरता है, फिर गड्ढे में डालता है। अरस्तू घूमता रहा, घूमता रहा, फिर उसकी जिज्ञासा बढ़ी, फिर उसे अपने को रोकना संभव नहीं हुआ। सज्जन आदमी था, एकदम से किसी के काम में बाधा नहीं डालना चाहता था, किसी से पूछना भी तो ठीक नहीं, अपरिचित आदमी से, यह भी तो एक तरह का दूसरे की सीमा का अतिक्रमण है। मगर फिर बात बहुत बढ़ गई, उसकी भागदौड़, इतनी जिज्ञासा भर गई कि यह मामला क्या है? यह कर क्या रहा है? पूछा कि मेरे भाई, करते क्या हो? उसने कहा, क्या करता हूं, सागर को उलीच कर रहूंगा! इस गड्ढे में न भर दिया तो मेरा नाम नहीं! अरस्तू ने कहा कि मैं तो कोई बीच में आने वाला नहीं हूं, मैं कौन हूं जो बीच में कुछ कहूं, लेकिन यह बात बड़े पागलपन की है, यह चम्मच से तू इतना बड़ा विराट सागर खाली कर लेगा! जन्म-जन्म लग जाएंगे, फिर भी न होगा। सदियां बीत जाएंगी, फिर भी न होगा! और इस छोटे से गड्ढे में भर लेगा? और वह आदमी खिलखिला कर हंसने लगा, और उसने कहा कि तुम क्या सोचते हो, तुम कुछ अन्य कर रहे हो? तुम कुछ भिन्न कर रहे हो? तुम इस छोटी सी खोपड़ी में परमात्मा को समाना चाहते हो? अरस्तू बड़ा विचारक था। तुम इस छोटी सी खोपड़ी में अगर परमात्मा को समा लोगे, तो मेरा यह गड्ढा तुम्हारी खोपड़ी से बड़ा है और सागर परमात्मा से छोटा है; पागल कौन है?
अरस्तू ने इस घटना का उल्लेख किया है और उसने लिखा है कि उस दिन मुझे पता चला कि पागल मैं ही हूं। उस पागल ने मुझ पर बड़ी कृपा की।
वह कौन आदमी रहा होगा? वह आदमी जरूर एक पहुंचा हुआ फकीर रहा होगा, समाधिस्थ रहा होगा। वह सिर्फ अरस्तू को जगाने के लिए, अरस्तू को चेताने के लिए उस उपक्रम को किया था।
ज्ञान और भक्ति वास्तव में अहंकार विसर्जन की विधियां हैं। दोनो ही मार्गो से चलते हुए अहंकार विसर्जन संभव है। जो व्यक्ति भाव प्रधान हैं वह भक्ति का रास्ता ले सकता है। जो मस्तिष्क से जीता है वह ज्ञान की राह पर चल ध्यान को प्राप्त कर सकता है। ध्यान के अंत में भक्त की उद्घोषणा है अब मैं कहां, तू ही है। और ज्ञानी की उद्घोषणा है अब तू कहां, मैं ही हूं- अहम् ब्रह्मास्मि, अनलहक। यह कहने के अलग-अलग ढंग है।
सारे धर्मों का सार ध्यान है। सारे धर्म ध्यान को कहने के अलग-अलग ढंग हैं। सारे धर्म ध्यान को पाने के अलग-अलग मार्ग हैं। भक्ति की यात्रा अलग है और ज्ञानी की यात्रा अलग है, लेकिन मंजिल एक है, वही मंजिल ध्यान है। ध्यान का अर्थ हुआ -न तो भक्त बचा, न भगवान; न मैं, न तू; सिर्फ बोध बचा, सिर्फ प्रीति बची, गुण बचा, भगवत्ता बची–न भगवान, न भक्त।
ध्यान के मूल तत्व हैं…विश्राम,साक्षित्व.अनिर्णय…!
विधि कोई भी हो, वे अनिवार्य तत्व हर विधि के लिए आवश्यक हैं। पहली है एक विश्रामपूर्ण अवस्था: मन के साथ कोई संघर्ष नहीं, मन पर कोई नियंत्रण नहीं;कोई एकाग्रता नहीं।
दूसरा, जो भी चल रहा है उसे बिना किसी हस्तक्षेप के, बस शांत सजगता से देखो भर-शांत होकर, बिना किसी निर्णय और मूल्यांकन के, बस मन को देखते रहो। ये तीन बातें हैं: विश्राम, साक्षित्व, अ-निर्णय- और धीरे-धीरे एक गहन मौन तुम पर उतर आता है। तुम्हारे भीतर की सारी हलचल समाप्त हो जाती है। तुम हो, लेकिन ‘मैं हूं’ का भाव नहीं है-बस एक शुद्ध आकाश है। ध्यान की एक सौ बारह विधियां हैं; उनकी संरचना में भेद है, परंतु उनके आधार वही हैं: विश्राम, साक्षित्व और एक निर्विवेचनापूर्ण दृष्टिकोण।
खेलपूर्ण हों ध्यान में जाने की शुरुआत करें और आप पाएंगे कि ध्यान बहुत सरल है जितना उसे मुश्किल बताया गया है उतना है नहीं । ध्यान करने को गंभीरता से ना लें और आप पाएंगे की ध्यान में आप का रस बढ़ने लग जाएगा और आप बिना ध्यान किए रह ना पाओगे ।
‘Sakshi’ Narendra