ध्यान और प्रेम दो ही रास्ते हैं परमात्मा तक पहुंचने के। ध्यान का रास्ता बड़ा सूखा है। उस पर तुम्हें महावीर मिलेंगे। उस पर तुम्हें बुद्ध बैठे मिलेंगे। मगर कोई पक्षी की गूंज सुनाई न पड़ेगी। ध्यान का रास्ता मरुस्थल जैसा है। ध्यान इसलिए बहुत कम लोगों को रास आता है। कुछ ऐसे भी लोग हैं जिनको मरुस्थल में सौंदर्य मिलता है। क्योंकि मरुस्थल में जो विस्तार है वह कहीं भी नहीं है। सहारा का मरुस्थल में खड़े होकर ओर छोर नहीं दिखाई पड़ता। रेत ही रेत का सागर है अंतहीन। मगर किसी को इस अनंत रेत में भी सौन्दर्य मिल सकता है ।मरुस्थल की अपनी सुंदरता है। वहां की हवाओं में कोई भाप नहीं होती। हवा बिल्कुल शुद्ध होती है,पारदर्शी होती है। तुम हाथ बढ़ाओ और उन्हें छू लो। अर्थात ध्यान का अपना मजा है।
और दूसरा रास्ता है प्रेम का। प्रेम का रास्ता बड़ा हरा भरा है। उस पर पक्षी भी गीत गुनगुनाते हैं। मोर भी नाचते है। इस रास्ते में तुम्हें कृष्ण मिलेंगे। इस रास्ते पर तुम्हें मीरा मिलेगी। इस रास्ते पर तुम्हें चैतन्य भी मिलेंगे। कृष्ण बांसुरी बजाते मिलेंगे। मीरा नाचती हुई मिलेगी। और चैतन्य गीत गाते हुए। प्रेम का अपना मजा है। प्रेम का रास्ता आसान भी है। क्योंकि तुमने किसी न किसी को तो प्रेम किया ही होगा। प्रेम का मजा कदम कदम पर है। प्रेम की मंजिल पूरे रास्ते पर फैली है जबकि ध्यान की मंजिल अंत में है। और रास्ता बहुत रुखा सूखा। प्रेम का रास्ता बड़ा सुगम है क्योंकि तुम्हें सिर्फ इतना ही करना होता है कि तुम्हें तुम्हारे सारे उपद्रव को परमात्मा के चरणों में दे देना होता है। प्रेम में तुम कहते हो परमात्मा से – तू ही संभाल। हम तेरे साथ लग लेते हैं। तू फिकर कर। जो तेरी मर्जी वह मेरी मर्जी। तू दुख दे वह भी मुझे स्वीकार है। तू सुख दे तो उसके लिए तेरा हृदय से अहोभाव। मैं तो बांस की पॉली पोंगरी हू। जो सुर निकल रहा है, जो संगीत निकल रहा है वह तेरा है। प्रेम है समर्पण। ध्यान हैं स्वयं पर भरोसा, श्रद्धा। प्रेम है परमात्मा पर अटूट श्रद्धा।
मगर आज का इंसान दोनों रास्तों में से शायद किसी को भी पूर्णता से अपनाता नहीं। नतीजा यह वह किसी मंजिल तक पहुंचता नहीं। क्योंकि हम व्यर्थ की चीजों में प्रेम लगाते रहे। प्रेम है खुद विदा हो जाना। जहां से हमको ही चले जाना है, हम वहां हृदय को जोड़ देते हैं। अंततः दुख तो होगा ही, पीड़ा तो होगी ही। फरीद कहता है यदि मुझे पता ही होता कि फरीद को ही मरना होगा तो वह इस झूठी दुनिया में प्रीति न लगाता। और ध्यान उससे होता नहीं क्योंकि आंखें बंद करते ही विचारों का कोलाहल शुरू हो जाता है। मगर शुरुआत तो कहीं से करनी होगी। आप जरा होश को अपने जीवन में जगाए। किसी भी कृत्य को करते वक्त उसे होशपूर्वक करें। भोजन कर रहे हैं तो देखें कि मेरा शरीर भोजन कर रहा है और मैं स्वयं को भोजन करते हुए देख रहा हूं। ऑफिस, दफ्तर में काम कर रहे हैं। देखे आपका शरीर ऑफिस में काम कर रहा है। जैसे जैसे आप होश को जीवन में जगायेंगे वैसे वैसे ध्यान आपके जीवन में प्रवेश करने लगेगा। आपके ध्यान की यात्रा शुरू हुई।
‘Sakshi’ Narendra@mysticvision.net