मैंने सुना है जापान में एक कौम है ‘समुराई’ जो युद्ध में जाने से पहले एक प्रथा से गुजर जाना नहीं भूलते और वह है – स्वयं को मार डालने की। इस रीत से गुजर जाने के बाद ही वह योद्धा से लड़ते हैं। तात्पर्य यह है कि युद्ध में जाने से पहले आप का वास्तविक मिटना हो जाए। जब आप अहंकार शून्य हो जाते है तभी आप समग्रता से युद्ध में लड़ सकते हैं। समुराई इस अद्भुत रीति रिवाज के माध्यम से हम सबको गहरा संदेश दे देते हैं। एक जीवन वह है जो आपको माता पिता से मिलता है, समाज, स्कूली शिक्षा, संस्कारों से मिलता है। और एक दूसरा जीवन भी है जब आप पूर्णतया मन की इन्हीं सारी वृतियों से मुक्त हो जाते हो। इसी दूसरे जीवन को द्विज कहा गया है। भगवान कृष्ण गीता में अर्जुन से कहते हैं ‘ हे अर्जुन तू पहले द्विज बन फिर युद्ध कर’। जब तक व्यक्ति स्वयं को नहीं जान लेता तब तक उसका जीवन व्यर्थ है। परम सौभाग्यशाली है वह जो मिटने के लिए राजी हो जाते हैं। अन्यथा हर व्यक्ति अपने सिद्धांत, अपनी मान्यता, अपने मन की वृत्तियों के साथ ही तादम्य बनाकर जिंदगी को जी लेता है। नए जीवन का अर्थ है कि मरने से पहले शाश्वत को जान लेना। जिस जीवन को हम जीवन मान कर जीते हैं उसके अतिरिक्त भी हमारे भीतर एक विराट छुपा हुआ है। उसको जान लेना ही सब कुछ जान लेना है। बीज जब तक स्वयं को बीज मान कर ही जिएगा तब तक उसके वृक्ष बनने की जो संभावना थी वह प्रकट न होगी। बीज जब मिट्टी में दग्ध होने को राजी न होगा तब तक उसके भीतर से अंकुरण संभव नहीं। कबीर कहते हैं- ‘अच्छा हुआ मेरी गगरी फूटी, मैं पनिया भरन से छुटी’। मन से मुक्ति ही आनंद अवस्था की द्योतक है। परम आदरणीय गुरुदेव हमेशा कहते हैं। Throw away all your ambitions from inside, and live like most ambitious person on this planet.
नए जीवन का जन्म तभी होता है जब आप किसी जागृत व्यक्ति के सामने हारने को राजी हो जाते हो। हार जाना ही वास्तव में सच्चे अर्थों में जीतना है। और इस हार जाने को जो राजी हो जाता है उसकी फिर जीवन में हार संभव नहीं। Leutze कहता है कि मुझे कोई हरा नहीं सकता क्योंकि मैं जीतना ही नहीं चाहता। हार जाना है मन से मुक्ति। हार जाना है स्वयं के केंद्र के साथ मिलन,और जो स्वयं के केंद्र तक पहुंच जाता है वह अस्तित्व के साथ एक हो जाता है।
‘Sakshi’Narendra@mysticvision.net