भाग्य के सिद्धांत को गलत तरीके से समझा और देखा गया है। भाग्य का सिद्धांत कहता है सब अपने आप हो रहा है। इसका मतलब यह नहीं कि आप निष्क्रिय हो जाए। भाग्य का सिद्धांत कहता है कि आप अपने आत्यंतिक केंद्र पर पहुंच जाएं। आप जान लें कि आप कौन हैं। भाग्य का सिद्धांत साक्षी की उद्घोषणा है। भाग्य की गलत धारणा ने व्यक्ति को अकर्मण्य बना दिया है। वह यह कह रहा है जब सब कुछ भाग्य से ही होता है तो मैं क्यों करूं ? भाग्य है स्वयं की नियति की घोषणा। स्वयं जान जाना भाग्य है। और प्रत्येक मनुष्य में यही संभावना है। तभी कहा जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपना भाग्य लिखवा कर आता है। इंसान या तो भाग्य के सहारे बैठकर अकर्मण्यता में चला जाता है या फिर कर्म के सिद्धांत को पकड़ कर्ता भाव में। संतुलन में रहना उसका स्वभाव ही नहीं।
आदर्श स्थिति तो तब है जब भीतर से पूर्ण विश्राम पूर्ण स्थिति हो और बाहर पूर्ण सक्रियता। अर्थात अकर्ताभाव में सारे कर्म करते हुए भी क्रियाशील रहना। यानी कि साक्षी भाव में रहते हुए सारे कामों को अकर्ता भाव से करना। या तो व्यक्ति भाग्य के सहारे हो माथा पकड़ कर बैठ जाता है यह समझ कर कि मेरे भाग्य में ही नहीं लिखा। या फिर वह एक के बाद एक संकल्पों को पूरा करने में लग जाता है। जिससे उसके अहंकार का पोषण होता है। अपने अस्तित्व गत केंद्र तक पहुंच जाना ही भाग्य से जुड़ जाना है। अपने स्वभाव को जान लेना ही नियति को प्राप्त करना है। वहां से जो संदेश प्राप्त होते हैं उसी भांति अकर्ता भाव से जीवन को जीना ‘कर्मवीर’ बनना है।
‘Sakshi’Narendra@mysticvision.net