जीवन के मूल सत्य का एक गहन पहलू है मृत्यु। जन्म के साथ मृत्यु लिख दी गई है। जो सत्य है उसे पूरे जीवन भर व्यक्ति नकारता जाता है बेहोशी वश। यह पता होते हुए भी कि शमशान उसका अंतिम ठिकाना है वह उसी के भय में जीता है। वह जीवन को नहीं जीता मगर जीने की व्यवस्था में लगा रहता है। स्वयं को धोखा देता रहता है। यह जानते हुए कि उसकी भी मृत्यु आएगी वह मृत्यु का प्रबंधन करता रहता है। वास्तविक जीवन तो मृत्यु के साक्षात्कार के बाद शुरू होता है। पता चल जाए कि ‘ मैं कौन हूं ‘ ? अलग हो जाए शरीर से, दृष्टा बन जाए स्वयं की देह का, यह अनुभव मृत्यु के पार ले जाता है। मृत्यु के पार जाने की कला सीख जाए और फिर पार हो जाए तभी जीवन को जिया जा सकता है। तभी जीवन उत्सव बनता है। अभी तो हर एक व्यक्ति मरा-मरा, सहमकर, मृत्यु के भय से ग्रस्त जीवन को बेहोशी में जिए जाता है। समझता है कभी मरेगा ही नहीं। और मरते वक्त उसे ख्याल आता है कि वह जिया ही नहीं। एक कब्र के बाहर सुंदर वाक्य लिखा था – मंजिल तो तेरी यही थी, तूने ही देर कर दी चलते चलते। हम रुकते नहीं। स्वयं से रूबरू नहीं होते। ध्यान नहीं कर पाते। कारण मृत्यु का साक्षात्कार नहीं करना चाहते। ध्यान है स्वेच्छा मृत्यु। सोचते हैं मृत्यु जब आएगी तब आएगी अब क्यों उसे याद करना। मृत्यु डराती है। मगर एक बार जो मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है उसका जीवन वह नहीं रहता जो मृत्यु के पहले था। अध्यात्म के ऋषियों ने ऐसे व्यक्ति को ‘ द्विज ‘ कहा है यानी दूसरा जन्म। एक जन्म माता-पिता देते हैं, दूसरा जन्म व्यक्ति को स्वयं जीना पड़ता है स्वयं की मृत्यु से गुजरने के बाद। वास्तविक जीवन वही है। पहला जीवन तो कंडीशनिंग मात्र है। जो दूसरा जन्म जीते जी प्राप्त कर लेता है उसकी फिर मृत्यु नहीं होती। क्योंकि अब वह होश पूर्वक जीवन को जीता है। जो होश से जीवन जिया नहीं वह होश से मर भी नहीं सकता। समाधि है होश पूर्ण मृत्यु का घटित हो जाना।
‘Sakshi’Narendra@ mysticvision.net