धर्म और अध्यात्म उन गिने-चुने कुछ लोगों की बातें हैं जो स्वयं को दांव पर लगाने के लिए तैयार हों। क्योंकि स्वयं को मिटाए बिना परम का अनुभव नहीं हो सकता ! बूंद अगर स्वयं को मिटाए बिना सागर से मिलना चाहती हो तो यह हो ही नहीं सकता। यह तो हो सकता है कि मिटने के बाद बूंद ,बूंद न रहे स्वयं ही सागर बन जाए। मगर यदि बूंद की यह चाह रहे कि वह सागर होने का अनुभव भी करना चाहती हो और मिटने को भी तैयार नहीं ,तो यह असंभव बात है।
व्यक्ति भी स्वयं को मिटाए बिना सत्य का अनुभव नहीं कर सकता। क्योंकि जो मिटाया नहीं जा सकता उसके मिलन के लिए तो स्वयं का वैसा होना जरूरी है। शरीर मृत्यु धर्मा है। जो मृत्यु के पार है उसे तो आत्मा के तल पर ही जाकर जाना जा सकता है। चैतन्य के साथ एक होना हो तो अंहकार से मुक्त होना ही प्रथम और अनिवार्य शर्त है।
जबतक हमारा स्वयं के साथ उतना फांसला नहीं हो जाता जितना हमारा किसी और के साथ होता है तबतक उसे हम नहीं जान सकते जो सब में मौजूद है। हमारे अंदर भी है और बाहर भी। जिसे मिटाया नहीं जा सकता। वह सारे ब्रह्मांड का उद्गम है और अंत में सब उसी में ही सिमट जाता है। स्वयं को स्वयं से अलग देखने का नाम ही है ध्यान। और यही है मुक्ति, निर्वाण या मोक्ष की प्राप्ति।
‘Sakshi’Narendra@mysticvision.net