जिसे यह बोध ही नहीं – ‘मैं कौन हूं’ वह जो भी कुछ करेगा गलत ही करेगा। वास्तविक जीवन की यात्रा ‘मैं कौन हूं’ के जानने के बाद ही शुरू होती है और तभी सच्चे अर्थों में सफलता मिलती है। बेहोशी में उठाया गया हर कृत्य असफलता को लेकर आएगा। ये निश्चित है। क्षणिक सफलता मिल भी गई उसका कोई मूल्य नहीं। हम सब जीवन में सफल तो होना चाहते हैं। धनवान और यश कीर्ति प्राप्त करना चाहते हैं। मगर हम बेहोशी से मुक्त होना नहीं चाहते। बेहोशी में जीना ही नकारात्मकता है। धर्म का सारा जोर व्यक्ति में जागरण लेकर आने की प्रक्रिया का नाम है। उसका नीति से कोई लेना-देना नहीं। धर्म पूर्ण रूपांतरण की प्रक्रिया है। सारे धर्मों का सार व्यक्ति को स्वयं के भीतर लौट आने की यात्रा है। स्वयं के भीतर होश को जगाने की यात्रा है। और उस प्रक्रिया का नाम ही ध्यान है।
परिवार, स्त्री, बच्चे, कामकाज और दुकान को छोड़ना नहीं है, सिर्फ उनके साथ की पकड़ को छोड़ना है। जैसे ही आपने अटैचमेंट को दूर किया कि आप अपने स्वयं के साथ जुड़ जाते हो।
जितनी मनुष्य की वासना बढ़ती जाती है उतनी उसमें विक्षिप्तता बढ़ती जाती है। यह वैज्ञानिक सत्य है, और यथार्थ भी। क्योंकि मनुष्य का मन कभी भरता ही नहीं। मन का स्वभाव है इंद्रियों के माध्यम से अभिव्यक्ति करना। कर्मेंद्रियों के माध्यम से हर व्यक्ति मन को अभिव्यक्त करता है। आंख देखती है, कान सुनते हैं इत्यादि। ऐसे कुल मिलाकर 9 द्वार हमारे शरीर में मन की उपस्थिति को दर्शाते हैं। इंद्रियों के नौ द्वारों से अलग एक दसवां द्वार भी है जो होश को जगाने से खुलता है। दशम द्वार उसे कहते हैं। भक्त उस अवस्था में पतिव्रता होता है। यह दशम द्वार है मुक्ति का। भीतर ले जाने वाला यह द्वार ही है जब आपका स्वयं से मिलन हो जाता है। संसार में जाने वाला सब खो देता है। भीतर जाने वाला सब कुछ पा लेता है। दशम द्वार पर पहुंचते ही भक्त रस का अविरत आस्वादन लेने लगता है। परमात्मा का रस रुप है रसो वैसा। उस स्थिति में भक्त महा संभोग की अवस्था में होता है – अखंड आनंद।
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