परमात्मा के साथ हम दो तरह से जुड़ सकते हैं। एक दार्शनिक की तरह और दूसरा भक्त की तरह। दार्शनिक की प्रार्थना बौद्धिक है, हार्दिक नहीं। जबकि भक्त की प्रार्थना रस से पूर्ण होती है। एक माधुर्य का संबंध परमात्मा के साथ निर्मित होता है।
परमात्मा के साथ हम कई तरह के संबंध स्थापित कर सकते हैं। जैसे कि पिता- पुत्र का, प्रेमी- प्रेयसी का, भगवान और भक्त का। मगर एक और संबंध भी है जो इससे भी गहरा जा सकता है और वह है मालिक और दास का। प्रार्थना का सीधा संबंध एक ऐसी भावदशा में आना है जहां कि हमारा अहंकार गिर जाए। जब हम परमात्मा को पिता गिनते हैं और स्वयं को पुत्र तब यह संभव नहीं होता। पिता पुत्र के संबंध में नैतिकता एक बाधा बन जाती है। प्रेमी और प्रेयसी के संबंध में भी अहंकार गिर नही पाता ।समरसता होती है । प्रार्थना तो तभी संभव है जब अहंकार का विसर्जन हो । जब याचक परमात्मा को मालिक की उपमा देता है और स्वयं को दास मानता है तब आप परमात्मा के सामने निसहाय हो जाते हो, नगण्य हो जाते हो। और यही सही प्रार्थना की भाव दशा है। प्रार्थना है अहोभाव की अवस्था। मन से मुक्ति की अवस्था। मन का स्वभाव है हमेशा अतृप्त रहना। मन है मांगों का जोड़। मन है बिन पेंदे की बाल्टी जो कभी भरती ही नहीं। प्रार्थना का मतलब मांगों की सूची लेकर परमात्मा के आगे बैठ जाना नहीं होता। प्रार्थना है अहोभाव से भर जाना, धन्यवाद के भाव से भर जाना। ताकि आपकी जीवन ऊर्जा का उर्दगमन हो।
जिस प्रकार सच्ची प्रार्थना के लिए सही भाव दशा में आना जरूरी है उसी प्रकार यह जानना भी जरूरी है कि प्रार्थना का सही समय क्या है । पूरे समय यदि आप प्रार्थना करते जाएंगे, माला घुमाते जाएंगे तो कोई यथार्थ सिद्ध न होगा। हम सब जीवन की प्राय दो अवस्था को ही जानते हैं – एक है नींद, दूसरा है जागरण। मगर एक तीसरी अवस्था भी है जहां पर आप आपकी चेतना के तल का गियर चेंज करते हो। रात को सोते वक्त और सुबह उठने के पहले आप अपनी चेतना के अलग तल पर होते हो । और वही समय है प्रार्थना का । ऋषियों ने उसे ‘अमृतबेला’ कहा है।
यहां यह समझना भी जरूरी है कि प्रार्थना के शब्द क्या हो ?
निशब्द प्रार्थना सर्वश्रेष्ठ है। ऐसी प्रार्थना आपको वर्तमान क्षण में ले आती है। जहां आपका अस्तित्व से एकाकार हो जाता है।
‘Sakshi’Narendra@mysticvision.net