दो तरह के लोग हैं जगत में। एक तो वो जो दूसरों को जीतने की आकांक्षा मन के भीतर रखे हुए हैं और दूसरे वो जो स्वयं को जीतना चाहते हैं। जीत भी दो तरह की है। एक जीत तो वह जो दूसरों को हराकर हासिल की जाए और दूसरे प्रकार की जीत वो जो स्वयं को जीतकर हो। स्वयं को जितना ही सच्ची जीत है। जो दूसरों को जीतने की कोशिश में लगा रहता है वह कभी भी दूसरों को तो नहीं जीत पाता, मगर वह स्वयं को भी जीतने से वंचित रह जाता है।
अधिकतर लोग महत्वाकांक्षा की दौड़ में स्वयं को जीतने का कभी प्रयास ही नहीं करते। महत्वाकांक्षा की दौड़ है धन को इकट्ठा करते जाना, पदों की चाहना भीतर रखना, और यह चाहना कि मेरी प्रतिष्ठा चारों ओर फैले। महत्वाकांक्षा बुरी बात नहीं, मगर भीतर की दरिद्रता या रिक्तता को छुपाने के लिए व्यक्ति बाहर की महत्वाकांक्षा से भरा हुआ जीवन जो जीता है वह स्वयं को नहीं जान पाता। वह बाहर नकली ‘मैं’ का निर्माण करता है। Pseudo self.
जो व्यक्ति यह समझ लेता है कि मन एक ऐसा पात्र है जिसे कभी भी भरा नहीं जा सकता,वह स्वयं की खोज में निकलता है। हमारे भीतर एक ऐसी संपदा है जिसे मिटाया नहीं जा सकता। वह है आत्मा, वह है परमात्मा। वही एकमात्र उपलब्धि है जिसे मृत्यु छीन ना सके। संसार की बाकी सारी उपलब्धियां उस उपलब्धि के सामने मिट्टी है। मृत्यु की कसौटी ही सबसे बड़ी कसौटी है मनुष्य के पास जिस पर वह कस कर देख ले कि उसके पास सोना है या मिट्टी। जब तक व्यक्ति को भीतर आनंद की संपदा का अनुभव नहीं होता तब तक वह बाहर की उपलब्धियों को ही सोना समझ कर जिए जाता है। अगर आपका जीवन पैसे के इर्द-गिर्द ही घूमता है तो आप प्रेम ,शांति और आनंद या परमात्मा को कभी जान ना पाएंगे। तब भीतर रहेगी रिक्तता, अकेलापन क्योंकि जिस पात्र को आप भरे जाते हो वह पात्र बाहर का है। भीतर ऐसा कोई पात्र नहीं जिसे आप पैसे से, पद से या प्रतिष्ठा से भर सको। भीतर का पात्र तो प्रेम से ही भरा जा सकता है।
होश को जीवन में लाने से ही आप स्वयं की रिक्तता से मुक्त हो सकते हो। और ध्यान ही एकमात्र उपाय है उस खालीपन से मुक्ति का। इसीलिए मेरा कहना है भीतर आपके सन्यास रहे और बाहर संसार यही जीवन रूपांतरण का स्वर्णिम सूत्र है।
‘Sakshi’Narendra@mysticvision.net