ऐसा हुआ कि दूर पहाड़ियों में एक चरवाहा अपनी गाय भैंसों को रोज सुबह चराने ले जाता। गाय भैंस को चरने छोड़ वह खुद बांसुरी की मधुर वाणी से सुंदर गीत गाता। यही उसका नित्यक्रम था। पास के गांव के कुछ मित्र आपस में बात कर रहे थे। एक ने कहा – सुना है अपने ही गांव का चरवाहा लखन सुंदर बांसुरी बजाता है। दूसरे मित्र ने जवाब दिया वह निठल्ला, वह क्या बांसुरी बजाएगा ? उसे तो गाय,भैंस के अलावा फुर्सत ही कहां है। तीसरे ने कहा वह तो चोर है – कामचोर। हो ही नहीं सकता। तुमने गलत सुना होगा।
बात वास्तव में सही भी थी इन मित्रों की। लखन ऐसा ही था। मगर था, अब नहीं है, अब नहीं रहा। वह बदल गया है। उसका जीवन संगीत बन गया है। वह पूरी तन्मयता से जीवन को जीने लगा है।
हमारे गहरे तलो पर नकारात्मकता भरी पड़ी है। हम दूसरे के लिए कभी प्रेरणात्मक बोल ही नहीं सकते। जीवन बहाव है, बहते रहना उसका धर्म। एक व्यक्ति हर समय एक ही मनोदशा में नहीं होता। दूसरे के प्रति लेबल लगा लेने से हम विराट की लीला से टूट जाते हैं। पूरा अस्तित्व उस विराट का अंग है। विराटता को एक स्वर से अंगीकार करने से ही हम परमात्मा के सत्य का अनुभव कर सकते हैं। एक वृक्ष में फूल, पत्तियां, डालियां सब उसकी जड़ों से आती हैं। बिना जड़ों के वृक्ष हो नहीं सकता। हम सब भी पूर्ण विराट आत्मत्व ब्रह्म के साथ जुड़े हुए हैं। मगर हमने स्वयं को विच्छिन कर दिया है उससे।
जीवन की समग्रता को स्वीकार करते ही हमारा जीवन अहर्निश प्रार्थना बन जाता है। हमारा चित् अहोभाव से भर जाता है।
‘Sakshi’ Narendra @mysticvision.net