अनंत काल से मनुष्य की ये चाह रही है कि कैसे दुखों से मुक्ति मिले और कैसे आनंद की प्राप्ति हो ? व्यक्ति दुखों से तो मुक्त होना चाहता है मगर नकारात्मकता से मुक्त होना नहीं चाहता। स्वयं के भीतर का कर्ताभाव नकारात्मकता है। नकारात्मकता से मुक्त हुए बिना आप आनंद का अनुभव नहीं कर सकते। एक निर्मल प्रेमल ह्रदय चाहिए आनंद के अनुभव के लिए। खोपड़ी का जो शोरगुल है वह बंद होना जरूरी है। अपने भीतर शांत, शून्य मौन थीर होकर ध्यान के माध्यम से हम सत्य का अनुभव कर सकते हैं जो मन के पार है। श्वेतकेतु गुरुकुल से जब अपने घर लौटा उसके पिता उद्दालक ने उससे पूछा कि क्या तूने अपने आप को पढ़ा ? श्वेतकेतु ने उत्तर दिया कि वह हर प्रकार के विषय में निपुण हो गया है। यह आप कौन सी बात कर रहे हैं जो मुझे पढ़ना अभी बाकी है। उद्दालक ने कहा जब तक तुमने स्वयं को नहीं पढ़ा तबतक बाहर की सारी विषयों की जानकारी दो कौड़ी की है। संसार जगत में बौद्धिक जानकारियां जरूरी है जीवन को आरामदायक जीने के लिए। मगर जब तक तूने सत्य को नहीं जाना तबतक तूने कुछ नहीं जाना। उद्दालक ने कहा हमारे परिवार में उसी को ही ब्राह्मण का दर्जा दिया जाता है जिसने ब्रह्म का साक्षात्कार किया हो। तो तू जा,और ब्रह्म को जानकर आ। असली सत्य के अनुभव बिना ब्राह्मण नहीं हुआ जाता। और श्वेतकेतु गया। ब्रह्म भीतर छिपा बैठा है उसके अनुभव के लिए आंखों को गीला करना होगा। स्वभाव में हार्दिकता लानी होगी। प्रेम समर्पण के बिना मालिक का अनुभव नहीं कर सकते। मन के पार उठते ही प्रेमपूर्ण हृदय से हम मालिक को पा लेते हैं। और मालिक कहीं बाहर नहीं तुम्हारे भीतर है। तत्वमसि। तुम ही हो मालिक। बूंद स्वयं को बूंद मानकर जी रही है। बूंद मिटे तो सागर हो जाती है । बीज मिटे तो वृक्ष हो जाता है । मनुष्य भी मिटे तो परमात्मा हो जाता है। मनुष्य की मृत्यु ही असली जीवन है। जीवन ऐसा जिए कि अभिनय हो। और अभिनय ऐसा हो की उससे वास्तविक कुछ ओर न लगे तभी जीवन में दुखों से मुक्ति संभव है।
‘Sakshi’Narendra@mysticvision.net