सत्य की कोई परिभाषा नहीं हो सकती। जो परिभाषित किया जा सके वह सत्य नहीं हो सकता ! जो शब्दों के परे है, जो अनिर्वचनीय हैं वही सत्य है । सत्य शब्दातीत है,मनातित है।
सत्य अनुभव है, जो मन के अतिक्रमण के बाद अनुभव में आता है। निर्विचार की वह अवस्था जहां मन न हो, भाव न हो सिर्फ आपका ‘होना’ रह जाए । आपकी शुद्ध साक्षी चेतना का रह जाना । सत्य में होना आपके स्वयं के साथ मिलन की घटना है। जब बूंद सागर में मिल जाती है तो स्वयं को बूंद कैसे कह सकती है ? सत्य को शब्दों में रखते ही सत्य असत्य हो जाता है। सत्य मौन की अवस्था है। ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या – यह धारणा वास्तव में गलत है। ब्रह्म अगर सत्य है तो उसके द्वारा रचा गया यह संसार भी सत्य ही होगा ! फर्क इतना है कि सत्य शाश्वत है, और जगत परिवर्तनशील। परिवर्तन और शाश्वतता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक की उपस्थिति दूसरे के बिना नहीं हो सकती। दूसरे की मौजूदगी जरूरी है पहले के लिए। अगर संसार है तो ब्रह्म भी होगा। और अगर उपनिषदों ने ब्रह्म को सत्य कहा है तो उसका रचा गया संसार मिथ्या कैसे हो सकता है ।ब्रह्म अगर अप्रकट स्वरूप है तो संसार उसका प्रकट रूप है। सत्य इस संसार में ही छिपा हुआ है। यह जगत सत्य के बिना हो नहीं सकता। जैसे मनकों की माला धागे के बिना पिरोई नहीं जा सकती,ठीक वैसे ही ! धागे के निकलते ही सारी गुरियां बिखर जाती हैं । इस जगत का आधार ब्रह्म है। वही सत्य है । जगत मिथ्या नहीं, परिवर्तनशील है। एक रेत का कण भी मिटाया नहीं जा सकता उसे पीसकर छोटा जरूर किया जा सकता है। मगर अंततः रेत के कण को कभी भी मिटाया नहीं जा सकता। संसार असत्य इसलिए भासता है क्योंकि यह परिवर्तनशील है मगर असत्य है नहीं। हमारी भाषा की एक सीमा है कि हम संसार की वस्तुओं को सही ढंग से नहीं रख पाते । हम कहते हैं कि नदी है । वास्तव में नदी है यह कहना गलत है । क्योंकि नदी कभी हो नहीं सकती । आप जिस क्षण नदी को नदी है ऐसा कहते हैं आपका यह कहना हुआ कि नदी रुकी हुई है । आपने नदी में पैर डाला की वह पानी दूसरे ही पल वह ना होगा । कहना यह उचित होगा की नदी बहती है । संसार उसी तरीके से सत्य है मिथ्या नहीं मगर परिवर्तनशील है । परिवर्तनशील होने के कारण इसे मिथ्या कहना सरासर गलत है । जीवन की इस समग्रता में जीना ही धर्म है। जहां सत्य भी रहे और संसार भी क्योंकि दोनों को गलत सिद्ध नहीं किया जा सकता । भीतर साक्षी हो और बाहर संसार रहे। भीतर दृष्टा हो और बाहर दृश्य। भीतर शाश्वतता रहे और परिवर्तन बाहर के स्तर पर हो, यही धर्म है। सत्य का अनुभव क्योंकि शब्दों के परे है उसे शास्त्रों को पढ़कर नहीं किया जा सकता। सत्य तो ध्यान के माध्यम से ही अनुभव में आता है। बुद्धि चातुर्य का यहां कोई इस्तेमाल नहीं। जो मन के परे है उसे तो अमनीय होकर ही अनुभव किया जा सकता है। कोई करोड़ों करोड़ों में से एक में सत्य अनुभव की प्रबल प्यास जगती है। और उनमें से किसी एक भाग्यवान में ही सत्य अनुभव होता है। शब्दों के माध्यम से तो जरूर आप इसे व्यक्त कर सकते हैं, पर अनुभव अपने आप में होना अनुकंपा है।
‘Sakshi’ Narendra@mysticvision.net