यदि इंसान दुखों से मुक्त नहीं हो पा रहा तो उसके पीछे का कारण कुछ और नहीं वह स्वयं है। वह अपने मन से मुक्त होना नहीं चाहता। या यूं कहें वह दुखों से मुक्त होना नहीं चाहता। कोई भी व्यक्ति क्षण भर में ही अपने सारे दुखों से मुक्त हो सकता है और पूर्ण स्वतंत्रता को प्राप्त कर सकता है। शर्त सिर्फ इतनी है कि वह स्वयं को मिटा दे। मिटना ही परमात्मा को पाना है। इस जगत में दुखों से मुक्त होने का एक ही उपाय ऋषि-मुनियों ने सदियों से कहा है और एक ही उपाय रहेगा जब तक पूरा ब्रह्मांड है और वह है ध्यान। ध्यान के अलावा दुख मुक्ति असंभव है। धन कभी भी आपको खुशी नहीं दे सकता। मगर ध्यानी के पास अगर धन होगा तो जरूर खुशी मिलेगी। मकान कभी भी आपको खुशी नहीं दे सकता। मगर ध्यानी के पास अगर आलीशान मकान होगा तो उसको खुशी दे सकता है। ध्यानी अगर झोपड़े में भी रहे तो उसको भी स्वर्ग बना देता है। और संसारी यदि स्वर्ग में भी रहे तो उसको भी नर्क बनाने में देर नहीं लगाएगा। इस संसार में सिर्फ एक ही सफलता हैं कि व्यक्ति अपने आत्यंतिक सत्ता को प्राप्त कर ले। और एक ही असफलता है कि सब कुछ प्राप्त होने के बावजूद भी स्वयं को न जानना।
अध्यात्म की राह पर ध्यान का इसलिए महत्व है क्योंकि ध्यान आपको मिटाता है। ताकि आप स्वयं के अनुभव में स्थित हो जाए। अभी हमारी मनोस्थिति ऐसी है कि हम बीमारी को ही औषध समझ रहे हैं। मन ही हमारी बीमारी है और मन से ही मुक्त होना हम नहीं चाहते। नतीजा यह निकलता है कि हम और बीमार होते चले जाते हैं।
जब हम दुखों से मुक्त नहीं होते तब बहाना बनाते हैं कि पिछले जन्मों के कर्मों के कारण दुख भोग रहे हैं। या फिर इस जन्म में मैंने कैसे कर्म किए हैं जिसके कारण दुख है ? मगर जिसके कारण दुख है उस मन से मुक्त होना नहीं चाहते। दुखों से मुक्त होने के लिए हम सब कुछ करते हैं कर्मकांड, पूजा, प्रार्थना, धर्म, ध्यान इत्यादि। मगर हम स्वयं को नहीं छोड़ते। स्वयं से मुक्त होते ही हम सारे दुखों से मुक्त हो जाते हो। भक्ति का इतना सा सार है कि भक्त मिट जाए और भगवान हो जाए। कर्ता मिट जाए और दृष्टा हो जाए। करने वाला न हो और शुद्ध साक्षी चेतना रह जाए। इस स्थिति में भगवत्तता का जन्म होता है। वह बिठाए तो मैं बैठू, वह बुलवाएं तो मैं बोलूं, वह नचाए तो मैं नाचूं।
‘Sakshi’Narendra@mysticvision.net