इस पृथ्वी पर हम वस्तुतः है नहीं। हमारे होने का हमें आभास होता है क्योंकि देह ने घर कर लिया है मगर देह हमारा घर नहीं। हमारा स्वभाव आत्मा का है- आकाश का। शरीर है पृथ्वी, आत्मा है आकाश। हम शरीर और आत्मा का बेजोड़ मिलन है। पृथ्वी और आकाश आभासित तो होते हैं कि मिलते हैं मगर क्षितिज की भांति वो कभी मिलते नहीं । हमारी धारणा है वह मिलते हैं। आत्मा है अमृत। शरीर है विष। आत्मा का विष से मिलन कैसे संभव है ? मन पुनरुक्ति की वासना है। मन चुनाव करता है। मन कहता है यह हो, यह न हो। मन दुख का विरोध करता है। मन सुख में खुश होता है। समत्व ‘साक्षीभाव’ की छाया हैं। दुख के साथ दुखी हो जाना और सुख के साथ खुश हो जाना यह मन की वृत्ति है। दुख और सुख में समत्व की साधना साक्षी भाव है। वर्तमान और मांग एक साथ नहीं हो सकते। मांग का होना भूतकाल में होने की घोषणा है। फिर चाहे वह मांग आनंद की ही क्यों न हो, परमात्मा को भी पाने की क्यों न हो ? जब तुम्हारे अंदर तनाव नहीं रहता और फिर जो रहता है उसका नाम ‘ध्यान’ है। जब तुम्हारे अंदर वासना नहीं रहती फिर जो शेष रहता है उसका नाम ‘ध्यान’ है। परमात्मा का अर्थ है तुम वही हो जिसे तुम खोज रहे हो। परमात्मा को कोई खोजना नहीं। परमात्मा मिला ही हुआ है। परमात्मा को हम ऐसे खोज रहे हैं जैसे चश्मा नाक पर चढ़ा हो और उसी चश्मे से चश्मे को ढूंढ रहे हो। खोजने से कभी परमात्मा नहीं मिलता।जब खोजने वाला खुद खो जाता है तब जो शेष रहता है वही परमात्मा है। परमात्मा विश्राम में मिलता है। जब आप विश्राम पूर्ण होते हो तब आपके भीतर विचार शून्यता घटित होती है। यह विचार शून्यता ही परमात्मा का अनुभव है। आदमी अकेला जानवर है जो खुद के श्रेणी के प्राणी को मारता है। शेर कभी शेर को नहीं मारता। बंदर कभी बंदर को नहीं मारता। सिर्फ आदमी है जो दूसरे आदमी को मारता है।
‘Sakshi’Narendra@mysticvision.net