स्व -अनुभव के क्षण में न अतीत की स्मृतियां रहती हैं न भविष्य की कल्पनाएं । मान लीजिए यदि आप राम भक्त हैं और आपको ध्यान के गहन क्षणों में राम के दर्शन हुए और आप मान बैठे आपको अनुभव हुआ तो वह भी मन की ही एक चाल है, वास्तविक अनुभव नहीं। जीसस के अनुयायी को अगर अनुभव के क्षण में जीसस दिखाई पड़ता है, कृष्ण भक्त को यदि कृष्ण के दर्शन होते हैं तो यह भी मन की प्रोजेक्शन है। इसका वास्तविक स्व -अनुभव से कोई लेना देना नहीं।
वास्तविक स्व -अनुभव तो ‘ अहा ‘ का क्षण है जहां कि साधक आवाक रह जाता है, नि:शब्द रह जाता है। यह एक अनिर्वचनीय अनुभव है। जब साधक के सामने न कोई विचार बचे, न कोई धारणा, न कोई सिद्धांत, न भूतकाल की स्मृतियां, न भविष्य की कल्पनाएं। तब जो शेष रह जाता है वह शून्यता का अनुभव परमात्म अनुभव है। महा शून्यता ।
संभोग के क्षणों में दो प्रेमियों को जो अनुभव घटता है वो करीब करीब निर्विचार का अनुभव, क्षणिक समाधि का अनुभव है। यही क्षण में प्रेमी बोल उठते हैं ‘अहा’ । ‘अहा’ शब्द बड़ा प्यारा शब्द है । सारे धर्मों ने ‘अहा’ को ‘अहा’ कहा है।
‘अहा’ का अनुभव निर्विचार की अवस्था है जहां आपकी सारी विचारधारा खंडित हो जाए। धर्म, जाति, सिद्धांत, कल्पना, धारणा और यहां तक कि आपका होना भी मिट जाए ,वही है ‘अहा’ का अनुभव। प्रेम के क्षणों में यदि आप युगल से पूछेंगे की प्रेम का अनुभव कैसा रहा तो वो कुछ बोल न पाएगा। संभोग के उस क्षण में मौन हो जाएगा क्योंकि वहां उस क्षण में अनुभव करनेवाला और अनुभव दोनों ही खो जाते हैं। सिर्फ होना शेष रह जाता है ।
सारे अनुभव मन के हैं। जब मन नहीं होता तब जो अनुभव होता है वह वास्तविक अनुभव है। आत्मज्ञान के क्षण में तो मन होता ही नहीं। अमनीय अवस्था ही आत्मज्ञान है। वास्तविक अनुभव तो अनुभवातीत है। उसको शब्दों में रख पाना असंभव ही नहीं ,नामुमकिन है। क्योंकि उस क्षण में अनुभवकर्ता और अनुभव दोनों ही नहीं रहते। एक्सपीरिएंसर और एक्सपीरियंस both are no more । न भक्त रहता है न भगवान। सिर्फ अनुभव शेष रहता है ।
स्व-अनुभव का यह क्षण प्रसाद के रूप में प्राप्त होता है। गुरुकृपा से मिलता है। न तो यह मंत्र करने वाले को, न जप,तप करने वाले को, न वेद पुराण पढ़ने वालों को, न ही तीर्थ यात्रा करने वालों को। यह क्षण आशीर्वाद रूप मिलता है। जो आपके करने से मिल जाए वह हमेशा ही आपसे छोटा होगा। आपने एक गीत की रचना की। गीत कितना भी प्रीतिकर हो, मगर वो आपसे बड़ा नहीं हो सकता। आपके प्रयत्नों से, आपके जप, तप करने से यदि परमात्मा मिल भी जाए तो वो ऐसा परमात्मा आपसे छोटा ही होगा। कर्ता तो अपने कृत्य से सदा बड़ा होता है। परमात्मा का अनुभव तो प्रसादरूप है जो कृपा से प्राप्त होता है। जब आप नहीं होते आप मिट जाते हो, फिर जो शेष रहता है, वह है परमात्मा का अनुभव। जहां आपके सारे कृत्य समाप्त हो जाते हैं, आपके भीतर से सारे कर्तापन का भाव मिट जाता है। भीतर न तो पुण्य बचता है, न तप, न ध्यान। तब जो शेष बचा रहता है वो है परमात्मा।
‘अहा’ के इस क्षण में भक्त आवाक रह जाता है, आश्चर्य से भर जाता है, अहोभाव से भर जाता है। और फिर यही ‘अहा’ का अनुभव ‘अहो’ बन जाता है।जीवित गुरु के सानिध्य में समर्पण के भाव से गुरुआज्ञा में रहकर ही शिष्य इस अनुभव का कृपापात्र होता है। यू कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगा कि ऐसा समर्थ गुरु मिलना और शिष्य के भीतर ऐसा भाव जगना यह भी कृपा ही है। आत्मज्ञान की विलक्षण घटना कृपा से घटती है। शिष्य जब ध्यान के माध्यम से ‘न कुछ’ करने की अवस्था में आ जाता है और जीवन को ‘साक्षी’ भाव से जीने लगता है तब शनै: शनै: उसके भीतर विचार शून्यता घटने लगती है जो एक दिन आत्मअनुभव बन जाती है।
‘Sakshi’Narendra@mysticvision.net