अध्यात्म की सीढ़ियां कुछ चुनिंदा गिने-चुने लोगों के लिए है जो अपना सब कुछ न्योछावर करने के लिए तैयार हैं। सत्य को पाना तभी संभव है जब आपका मिटना हो जाए। सत्य को जानना और उसमें स्थित होने की प्रबल प्यास कृपा से ही संभव है। और इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं। साधक के लिए जो सत्य अनुभव का आकांक्षी हो,वह गुरुकृपा का भी कृपापात्र बन जाता है। सिर्फ शिष्य को ही गुरु की तलाश नहीं होती, गुरु को भी ऐसे शिष्य की तलाश होती है। मेरी नजर में सद्गुरु वही जो स्वयं जागा हुआ हो। और जागे हुए सतगुरु का एकमात्र कार्य होता है दूसरों को जगाना। वह कोई ज्ञान, क्रिया या फिर कोई उपाय नहीं देता वह आपको जगाता है। व्यावहारिक जगत में जो भी दिखाई पड़ रहा है, जिसे दिखाई पड़ रहा है और जिसने यह जाना कि उसे दिखाई पड़ रहा है – वह तीनों के परे है ‘आपका होना’। ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता तीनों यथार्थ नहीं है, तीनों खंड खंड है। जहां-जहां खंड है वहां वहां असत्य है। जहां जहां खंड है वह व्यावहारिक है, परमार्थिक नहीं।
दृष्टा,दर्शन और दृश्य एक साथ बंधे हैं। वह जहां जहां जाते हैं एक साथ जाते हैं। जिसमें यह तीनों भासते हैं वही है सत्य, वही है ‘साक्षी’, वही है सत्य का अनुभव। सत्य का अनुभव जीवित गुरु के सानिध्य में रहकर ही संभव है। उपनिषद का मतलब ही है गुरु के पास बैठना। और इसलिए ही शिष्यत्व महाक्रांति है। और जितनी भी क्रांतियां संसार भर में हुई है वह सारी दो कौड़ी की हैं। सबसे बहुमूल्य क्रांति तो वह है जब व्यक्ति रूपांतरित हो जाए। वह ‘द्विज’ बन जाए।
जीवित गुरु आपको जलाएगा। सोना जैसे तपकर परिशुद्ध होता है ऐसे ही वह शिष्य की नकारात्मकता को ध्यान की अग्नि द्वारा भस्म करता है। ध्यान मृत्यु है। व्यक्ति सिर्फ धारणा मात्र है। ध्यान व्यक्ति को मिटाता है। फिर जो शेष रह जाता है, वह है समाधि।
समाधि वह स्थिति है जहां आपको जीवन के सारी समस्याओं के समाधान मिल जाए। आपके जीवन का कोई भी प्रश्न निरुत्तर न रह जाए। हम सबकी अभिलाषा है कि कोई एक उपाय हमें मिल जाए जो हमें सारे दुखों से मुक्त कर दे। कौन सा है वह उपाय ? भगवान अष्टावक्र राजा जनक को सारे दुखों से मुक्त होने का एक उपाय बताते हैं वह है जाग जाना। ‘मैं अलग हूं अस्तित्व से’ यह मानना ही जीवन में दुखों का मूल कारण है। चीजों को खंडित करके देखना है दुख का मूल कारण। भीतर कर्ता का भाव – मेरे करने से कुछ हो रहा है यह भ्रांति है। यह धारणा हमको अस्तित्व से अलग करती है। और जीवन में हम दुखों को आश्रय स्थान दे देते हैं। शिष्यत्व महाक्रांति इसलिए है क्योंकि इससे आपका कर्ताभाव समाप्त हो जाता है। समर्पण के भाव दशा में आप स्थित हो जाते हो। अष्टावक्र इसे कहते हैं चित् की आंतरिक दशा में विश्राम। स्वर्ग और नर्क कोई भौगोलिक स्थितियां नहीं। दुख का अत्यंतिक रूप नर्क है। सुख का अत्यंतिक रूप स्वर्ग है। स्वर्ग और नर्क सब कल्पनाएं हैं। आप स्वयं ही अपने आसपास नर्क निर्मित करते हैं और स्वर्ग भी।
समर्पण धर्म की संक्रांति है। और शिष्यत्व की भाव दशा में आ जाना महाक्रांति है। और जागरण एकमात्र उपाय है जो आपको आपके सारे दुखों से मुक्त कर देगा। और यह संभव है ध्यान से।
‘Sakshi’ Narendra@mysticvision.net